विनोद कुमार झा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हालिया श्रीलंका यात्रा ने दोनों देशों के द्विपक्षीय संबंधों में एक नई ऊर्जा का संचार किया है। इस यात्रा की विशेष बात यह रही कि इसमें केवल कूटनीतिक और विकासात्मक मुद्दों पर ही नहीं, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण से जुड़े विषयों पर भी गंभीरता से चर्चा हुई। विशेष रूप से, भारतीय मछुआरों की रिहाई इस बात का प्रतीक है कि दोनों देश अब जटिल और संवेदनशील मुद्दों को सहानुभूतिपूर्वक सुलझाने के रास्ते पर अग्रसर हैं।प्रधानमंत्री मोदी द्वारा मछुआरों के मुद्दे को प्रमुखता से उठाया जाना और उसके अगले ही दिन श्रीलंका सरकार द्वारा 14 भारतीय मछुआरों को रिहा करना यह दर्शाता है कि आपसी संवाद और सद्भावना से वर्षों पुराने विवादों को भी सुलझाया जा सकता है। यह केवल एक राजनयिक सफलता नहीं, बल्कि एक मानवीय जीत भी है। समुद्री सीमाओं की जटिलताओं में फंसे मछुआरे वर्षों से अपने जीवन और आजीविका को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। उनकी रिहाई इस बात का संदेश है कि सरकारें अब इस संकट को केवल सुरक्षा या सीमा के मुद्दे के रूप में नहीं, बल्कि एक मानवीय समस्या के रूप में देख रही हैं।
इस यात्रा में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अनुराधापुरा स्थित महाधिमंदिर में पूजा-अर्चना और बौद्ध स्थलों का दर्शन भी सांस्कृतिक कूटनीति का प्रभावी उदाहरण रहा। भारत और श्रीलंका की सभ्यताएं बौद्ध धर्म और सांस्कृतिक विरासत के साझा सूत्रों से जुड़ी हैं। प्रधानमंत्री का यह दौरा न केवल कूटनीतिक संबंधों को, बल्कि दोनों देशों की आत्माओं को जोड़ने वाला साबित हुआ है। इसके साथ ही, माही-ओमानधाई रेलवे लाइन और सिग्नलिंग परियोजनाओं के उद्घाटन से यह स्पष्ट होता है कि भारत श्रीलंका के विकास में एक भरोसेमंद भागीदार बना रहेगा। ‘पड़ोसी पहले’ नीति और ‘सागर’ दृष्टिकोण के तहत भारत की यह सक्रिय भूमिका न केवल क्षेत्रीय स्थिरता, बल्कि सामरिक और आर्थिक सहयोग को भी बढ़ावा दे रही है।
अंततः, यह यात्रा भारत-श्रीलंका संबंधों के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हो सकती है। यह केवल दस्तावेज़ों और घोषणाओं की यात्रा नहीं रही, बल्कि इसने भरोसे, मित्रता और मानवीय सरोकारों की मजबूत नींव रखी है। आने वाले समय में यही दृष्टिकोण दोनों देशों के बीच गहराते संबंधों का आधार बनेगा एक ऐसा संबंध जो केवल भूगोल से नहीं, बल्कि दिलों से जुड़ा हो।