मन की बात मन में रह गया!

बिहार की राजनीति एक बार फिर एक नाजुक मोड़ पर खड़ी है। विधानसभा चुनावों की आहट के बीच राजधानी पटना में महागठबंधन की अहम बैठक हुई, जहां सभी घटक दलों ने एकजुटता का प्रदर्शन करने की कोशिश की। तीन घंटे चली इस बैठक से कुछ निष्कर्ष अवश्य निकले जैसे कि एक कोऑर्डिनेशन कमेटी का गठन और तेजस्वी यादव को उसका चेयरमैन बनाना मगर इस पूरी कवायद के बाद भी जो नहीं कहा गया, वही सबसे अधिक महत्वपूर्ण बनकर उभरा: महागठबंधन के सीएम चेहरे की औपचारिक घोषणा। राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने बैठक से पहले ही साफ शब्दों में कह दिया था कि तेजस्वी यादव ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। पार्टी के इस रुख से उम्मीद बंधी थी कि महागठबंधन इस पर एकमत होकर तेजस्वी को सर्वसम्मति से अपना चेहरा घोषित करेगा। लेकिन बैठक के बाद जो तस्वीर सामने आई, उसने स्पष्ट कर दिया कि सभी दल इस मुद्दे पर एकमत नहीं हो सके। 

तेजस्वी को कोऑर्डिनेशन कमेटी का चेयरमैन बनाए जाने का निर्णय भले ही उनकी नेतृत्व क्षमता को मान्यता देता है, लेकिन यह उस बड़ी घोषणा की जगह नहीं ले सकता, जिसकी राजनीतिक दृष्टि से प्रतीक्षा थी। यह न केवल आरजेडी के भीतर असंतोष को जन्म दे सकता है, बल्कि आम जनता के बीच भी भ्रम पैदा कर सकता है। राजनीति में स्पष्टता और नेतृत्व का निर्धारण समय पर किया जाना अत्यंत आवश्यक होता है, विशेष रूप से तब जब राज्य में सत्ताधारी पक्ष पहले ही पूरी ताकत से मैदान में उतर चुका हो। महागठबंधन की यह झिझक कहीं मतदाताओं को यह संदेश न दे दे कि यह गठबंधन अपने आंतरिक संतुलन को लेकर ही आश्वस्त नहीं है।

महागठबंधन में शामिल अन्य दलों कांग्रेस, वामदल, वीआईपी आदि का यह अधिकार है कि वे नेतृत्व पर अपनी राय रखें, लेकिन चुनावी रणनीति के लिहाज से समय की मांग यह है कि गठबंधन जल्द से जल्द एक स्पष्ट चेहरा सामने लाए, ताकि जनता को यह विश्वास हो सके कि विकल्प के रूप में एक मजबूत और एकजुट नेतृत्व उपलब्ध है। मन की बात मन में रह गया' इस वाक्य में इस पूरी बैठक का सार छिपा है। आरजेडी तेजस्वी को आगे करने की बात करना चाहती थी, लेकिन महागठबंधन के बाकी घटक दल शायद अब भी इस फैसले को खुले दिल से स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं। इसका असर चुनावी तैयारी और जनता के मनोबल पर पड़ सकता है।

अब देखना यह है कि आने वाले दिनों में यह कोऑर्डिनेशन कमेटी केवल एक औपचारिकता बनकर रह जाती है, या फिर यह सचमुच वह मंच बनती है जहां महागठबंधन नेतृत्व के सवाल को भी सुलझा सके। राजनीति में चुप्पी कभी-कभी बहुत कुछ कह जाती है लेकिन इस बार, यह चुप्पी महंगी भी पड़ सकती है। समय है कि महागठबंधन अपने 'मन की बात' खुलकर कहे, क्योंकि जनता को भ्रम नहीं, भरोसा चाहिए।

(संपादक )

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