क्या हिन्दू होना अब सज़ा बन गया है?

विनोद कुमार झा

पहले हम अपने मन की उस गहराई को छूने की कोशिश करें जहां से इंसानियत की सच्ची चीख उठती है फिर चाहे वह कश्मीर की वादियों में हो या किसी शोकाकुल माँ की गोद में। जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग जिले की बैसरन घाटी में हुआ आतंकी हमला सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने पर किया गया एक भीषण प्रहार है। यह हमला किसी राजनीतिक विचारधारा की प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि धर्म के नाम पर की गई एक अमानवीय दरिंदगी है, जो हर भारतीय के दिल को लहूलुहान कर गई है। 

यह वह भारत है जहां सदियों से "वसुधैव कुटुम्बकम्" का मंत्र गूंजता रहा है। यह वह धरती है जहां तीर्थ यात्राओं से लेकर पर्यटन तक, आस्था और आनंद साथ चलते हैं। लेकिन अब जब आतंकवादी धर्म पूछकर गोली मारते हैं, तो यह सवाल उठना लाज़िमी है: क्या अब हिन्दू होना किसी सज़ा से कम है?

एक महिला अपने पति को बचाने की गुहार लगाती रही। एक जवान पत्नी के सामने अपने पति को खो बैठी, क्योंकि उसने कलमा पढ़ने से इनकार कर दिया। एक माँ, जो अपने बेटे के पास दौड़ नहीं सकी क्योंकि बंदूकें लहराती थीं। ये सिर्फ घटनाएँ नहीं, बल्कि हमारे तंत्र की असफलता के जीवंत प्रमाण हैं। हम हर बार कहते हैं  “आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता”, लेकिन जब वह बंदूक लेकर धर्म पूछता है, तो हमारी यह कथनी हकीकत से टकरा कर चकनाचूर हो जाती है।

लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों द्वारा इस हमले की जिम्मेदारी लेना इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यह कोई अचानक हुई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि सुनियोजित नरसंहार था। टारगेट स्पष्ट था  उन निर्दोष हिन्दू और गैर-मुस्लिम पर्यटकों को चुन-चुन कर मारना, जो सिर्फ कश्मीर की वादियों का सौंदर्य देखने आए थे। क्या यही वह ‘जन्नत-ए-कश्मीर’ है जिसके बारे में हमने किताबों और कविताओं में पढ़ा था?  यह हमला सिर्फ इंसानी जानों की हत्या नहीं, बल्कि उस विचारधारा की जीत की कोशिश है जो भारत की गंगा-जमनी तहज़ीब को मिटाना चाहती है। आज जब शुभम द्विवेदी और विनय नरवाल जैसे नौजवानों की असमय मृत्यु हमारे सामने खड़ी है, तब यह सवाल और भी तीव्रता से उठता है  क्या भारत में अब अपनी धार्मिक पहचान ज़ाहिर करना खतरे से खाली नहीं रहा?

हमारे नेता शोक व्यक्त करते हैं, मुआवज़ा घोषित होता है, निंदा की जाती है। लेकिन कब तक? कब तक हम निंदा की चादर ओढ़ कर आतंकवाद के इस दानव को सहते रहेंगे? कब तक ‘कड़ी निंदा’ के बयान हमारी संवेदनाओं को ढकते रहेंगे? कब तक ‘सांप्रदायिक सौहार्द’ की दुहाई देकर सच्चाई से मुँह मोड़ा जाएगा?

यह हमला उन मूल्यों पर चोट है जिन पर भारत की आत्मा टिकी हुई है। यह हमला किसी एक धर्म, जाति या राज्य पर नहीं, बल्कि पूरे देश की एकता, अखंडता और आत्मसम्मान पर है। आज यदि हम धर्म पूछकर मारे जाने वालों के लिए खड़े नहीं हुए, तो कल कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा। सरकार को अब सिर्फ मुआवज़ा देने या ट्विटर पर शोक व्यक्त करने से आगे बढ़कर एक ठोस रणनीति बनानी होगी। सीमा पार से आने वाली इस मानसिकता को केवल गोलियों से नहीं, बल्कि विचारों की दृढ़ता और न्याय की स्पष्टता से भी जवाब देना होगा। सुरक्षा तंत्र को केवल घटनाओं के बाद सक्रिय नहीं होना चाहिए, बल्कि पूर्व सूचना तंत्र को इतना मजबूत बनाना होगा कि इस तरह की घटनाएं पहले ही रोकी जा सकें।

यह समय है जब देश को एकजुट होकर यह संदेश देना होगा हमें डराकर न तो हमारे धर्म को मिटाया जा सकता है, न हमारी एकता को। हमें अपनी बहुलता पर गर्व है और हमारी पहचान हमारी ताकत है, कमजोरी नहीं। इस हमले का बदला केवल आतंकवाद को जड़ से खत्म कर के ही लिया जा सकता है  और यह काम केवल सरकार का नहीं, हम सबका है।जिन्होंने अपना खून इस धरती पर बहाया, उनकी चीखें अब हमारे आत्मसम्मान की आवाज़ बननी चाहिए। यह समय है शब्दों से आगे बढ़कर कर्म दिखाने का।

– संपादक

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