विनोद कुमार झा
जब धर्म अपने चरम शिखर पर होता है, तब राजा भी ऋषियों के सेवक होते हैं, और देवताओं को भी मर्यादा का पालन करना होता है। त्रेता युग में जब धरती पर धर्म की पुनः स्थापना हो रही थी, तब अयोध्या के राजसिंहासन पर विराजमान थे भगवान श्रीराम मर्यादा, करुणा और धर्म के मूर्तिमान स्वरूप। उनके राज्य में न कोई भूखा था, न कोई दुखी। सब संतुष्ट थे, क्योंकि राजा स्वयं धर्म का अनुशासन थे। ऐसे समय में एक विलक्षण प्रसंग घटित हुआ, जिसमें भगवान श्रीराम ने स्वयं देवराज इंद्र को एक चेतावनी दी और वह भी बाण के माध्यम से। यह कथा केवल शक्ति का नहीं, बल्कि संतों की सेवा में विलंब की अक्षम्य प्रकृति का स्मरण है।
एक दिन महान तपस्वी, क्रोध और कृपा के अद्वितीय संगम, महर्षि दुर्वासा अयोध्या पधारे। उनका आना किसी साधारण आगमन के समान नहीं था, क्योंकि जहाँ दुर्वासा का चरण पड़ता, वहाँ तप, तेज और धर्म की गूंज फैल जाती। श्रीराम ने अत्यंत श्रद्धा से उनका स्वागत किया। ऋषि प्रसन्न हुए और भोजन का आग्रह किया, परंतु उन्होंने सामान्य अन्न नहीं माँगा। उन्होंने कहा, हे राम! मैं कल्पवृक्ष से उत्पन्न फल ही ग्रहण करूँगा, वही मेरे तप के अनुकूल होगा।
श्रीराम ने तुरंत देवराज इंद्र को आदेश भिजवाया कि अति शीघ्र कल्पवृक्ष भेजें, जिससे महर्षि की सेवा पूर्ण हो सके। इंद्र, जो स्वर्ग के अधिपति माने जाते हैं, को यह कार्य तत्काल करना था। परंतु देवराज इंद्र अपने ऐश्वर्य और प्रभुत्व में उलझे हुए थे। उन्होंने इस आदेश को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जितना अपेक्षित था। कुछ समय बीत गया, परंतु कल्पवृक्ष नहीं आया। ऋषि दुर्वासा प्रतीक्षा कर रहे थे और श्रीराम की दृष्टि इस प्रतीक्षा पर थी। वह कोई सामान्य प्रतीक्षा नहीं थी, वह धर्म का क्षणिक ठहराव था।
श्रीराम जानते थे कि संतों की सेवा में क्षणमात्र की देर भी अधर्म की परिधि में आती है। उन्होंने बिना विलंब किए एक दिव्य बाण अपने तरकश से निकाला और स्वर्ग की दिशा में छोड़ दिया जो कि इंद्र के पास सीधे चेतावनी के रूप में पहुँचा। जैसे ही वह बाण स्वर्ग में पहुँचा, इंद्र के सिंहासन की शांति भंग हो गई। आकाश में गड़गड़ाहट हुई, और देवताओं में हलचल मच गई। इंद्र समझ गए कि यह कोई साधारण बाण नहीं, यह मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की धर्म-चेतना है। भय और पश्चाताप से घबराकर वे तुरंत कल्पवृक्ष लेकर अयोध्या पहुँचे और श्रीराम के चरणों में दंडवत होकर क्षमा याचना की।
श्रीराम ने कोई क्रोध नहीं दिखाया, बल्कि स्नेहपूर्वक कहा, देवराज, यह बाण क्रोध का नहीं था। यह उस मर्यादा की पुकार थी जो साधुओं की सेवा में विलंब नहीं सह सकती। इस दिव्य प्रसंग में श्रीराम ने यह सिद्ध किया कि राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य है संतों की सेवा करना और संतों के आदर में कोई भी चूक, चाहे वह स्वर्ग के देवता ही क्यों न करें, अस्वीकार्य है।
यह कथा केवल एक चेतावनी बाण की नहीं, बल्कि धर्म की उस सूक्ष्म रेखा की है, जो यह सिखाती है कि: संतों का सम्मान सर्वोपरि है, विलंब भी अनुशासनहीनता बन सकता है। भगवान का क्रोध भी कल्याणकारी होता है और धर्म के संरक्षक स्वयं कभी पक्षपात नहीं करते, चाहे सामने देवता ही क्यों न हों।
श्रीराम के इस अद्भुत प्रसंग में एक राजा का नहीं, बल्कि धर्म का निर्णय था जो आज भी युगों को मार्ग दिखाता है। जहाँ धर्म की रक्षा के लिए भगवान भी बाण उठाते हैं, वहाँ अधर्म की कोई जगह नहीं रहती फिर चाहे वह स्वर्ग में ही क्यों न हो।