विनोद कुमार झा
यह कथा उस समय की है जब भगवान श्रीराम, लक्ष्मण और सीता माता के साथ वनवास काल में पंचवटी के रमणीय प्रदेश में निवास कर रहे थे। वहाँ प्रकृति शांत थी, ऋषि-मुनि तपस्या में लीन थे और वातावरण दिव्यता से परिपूर्ण था। परंतु राक्षसी प्रवृत्तियाँ कभी भी शांत नहीं रहतीं। अधर्म को धर्म से वैर रहता है।
लंका के राक्षसराज रावण की बहन शूर्पणखा, जो स्वयं मायावी शक्तियों से युक्त और अहंकार में डूबी हुई थी, जब उसने श्रीराम को देखा, तो वह उनकी दिव्य छवि पर मोहित हो गई। वह राम के समक्ष स्वयं को प्रस्तुत कर बोली, मैं तुमसे विवाह करना चाहती हूँ। मुझे स्वीकार करो। मैं तुम्हारे योग्य हूँ।
श्रीराम ने शांति से उत्तर दिया, मैं तो व्रतधारी, एकपत्नी व्रती हूँ। मेरी पत्नी सीता हैं, जिनसे मैं प्रेम करता हूँ। तुम लक्ष्मण से जाकर पूछो।
लक्ष्मण ने भी उसे हंसकर टाल दिया और जब शूर्पणखा का अहं चोटिल हुआ, तो उसका राक्षसी रूप प्रकट हुआ। वह सीता पर झपटी, और तभी लक्ष्मण ने अपनी तलवार से उसकी नाक और कान काट दिए। यह केवल एक अंगभंग नहीं था, यह अहंकार और अधर्म के विरुद्ध दिया गया न्याय का प्रारंभ था।अपमानित और विकराल रूप में लहूलुहान शूर्पणखा अपने भाइयों खर और दूषण के पास गई। उसने अपने अपमान की कथा बढ़ा-चढ़ाकर सुनाई, जिसमें उसने सीता को भी अपराधी बताया। खर-दूषण जनस्थान के राक्षस प्रमुख थे बलशाली, क्रूर, और अहंकारी। उनके अधीन तेरह-चौदह हजार से अधिक राक्षस योद्धा थे। उन्होंने शूर्पणखा के अपमान को अपने कुल की प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया।
खर-दूषण अपनी विशाल सेना लेकर पंचवटी पर आक्रमण को निकल पड़े। उन्होंने चारों दिशाओं से घेर लिया। क्रूर गर्जनाएँ, रथों की गूंज, और अस्त्रों का शोर प्रकृति की शांति को चीरने लगा। तब श्रीराम ने लक्ष्मण और सीता को एक गुफा में भेजते हुए कहा, हे भ्राता, यह युद्ध केवल शरीरों का नहीं है। यह धर्म और अधर्म के बीच का है। तुम सीता माता की रक्षा करो, और मुझे इस अधर्म का विनाश करने दो। श्रीराम ने अपने धनुष को उठाया वह कोदंड, जो धर्म का प्रतीक था। उनके नेत्रों में क्षमा के स्थान पर अब क्रोध था पर वह क्रोध अहंकार या प्रतिशोध का नहीं, धर्म की रक्षा के लिए था।
युद्ध प्रारंभ हुआ। राक्षसों की सेना चारों ओर से धावा बोलती रही। एक अकेले राम पर हजारों बाण चलाए गए। पर श्रीराम स्थिर थे। जैसे ही उन्होंने अपने बाण चलाने आरंभ किए, अग्नि की वर्षा होने लगी। राम के बाण केवल शरीर को नहीं भेदते थे, वे अधर्म की जड़ों को काट रहे थे। युद्ध के पहले घंटे में हजारों राक्षस धराशायी हो गए। दूसरे घंटे में उनके सेनापति मारे गए। तीसरे घंटे में जब पृथ्वी रुधिर से भर चुकी थी, तब खर और दूषण भी श्रीराम के बाणों का शिकार बन गए। वह युद्ध केवल बाहुबल का नहीं था, वह एक दैवी शक्ति का प्रकटीकरण था। राम अकेले नहीं थे उनके साथ धर्म, सत्य और मर्यादा की पूरी शक्ति उपस्थित थी।
युद्ध समाप्ति के पश्चात जब लक्ष्मण और सीता लौटे, श्रीराम शांत मुद्रा में बोले, जब कोई नारी का अपमान करता है, जब अधर्म सिर उठाता है, तब केवल क्षमा पर्याप्त नहीं होती। तब धर्म को स्वयं उठकर उसे समाप्त करना पड़ता है। यह संहार उस नारी की मर्यादा की रक्षा के लिए था, जो सृष्टि की जननी है।
यह प्रसंग श्रीराम के चरित्र की अद्वितीय गहराई को प्रकट करता है। वे शांति के प्रतीक हैं, लेकिन जब मर्यादा पर प्रहार होता है, तब वही करुणा क्रोध में बदल जाती है और वह क्रोध भी एक सीमा में बंधा हुआ होता है। यह युद्ध केवल राक्षसों से नहीं था, यह अहंकार, पाप और अन्याय से था।