गाँव पिपलवा की कच्ची पगडंडियों पर सुबह की हल्की धूप जब पसरी होती, तो हर किसी को रामू और श्यामू की जोड़ी की याद आ जाती। रामू बड़ा था सलीकेदार, जिम्मेदार और शांत। श्यामू छोटा नटखट, हँसमुख और थोड़ा लापरवाह। दोनों बचपन में खेतों में साथ खेलते, तालाब में नहाते, और बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर सपने बुनते।
उनके माता-पिता के गुजर जाने के बाद रामू ने पिता की ज़िम्मेदारी उठाई और श्यामू की परवरिश की। उसे पढ़ाया, अच्छे कपड़े पहनाए, और जब भी श्यामू कोई गलती करता, तो डाँट कम और प्यार ज़्यादा दिया। यह सब श्यामू जानता था, और वह अपने बड़े भाई को भगवान की तरह पूजता था।
समय बीता। रामू ने खेती को अपनाया और अपनी मेहनत से खेतों को सोना उगलने लायक बना दिया। वहीं श्यामू को व्यापार का सपना था। वह शहर गया, कुछ पैसे उधार लिए और छोटी सी दुकान खोली। शुरुआत अच्छी रही, लेकिन जल्द ही श्यामू की लापरवाहियों और गलत फैसलों से नुकसान हुआ। वह बार-बार घाटे में जाता और फिर हर बार अपने बड़े भाई के पास मदद माँगने आता।
रामू, जो अब खुद एक प्रतिष्ठित किसान था, अपने भाई को हर बार बिना कुछ कहे मदद देता रहा। लेकिन गाँव में कानाफूसी शुरू हो गई। लोग कहने लगे, रामू तो मेहनती है, पर उसका भाई बस उसके पैसों पर ऐश कर रहा है। ये बातें रामू तक भी पहुँचीं। धीरे-धीरे उसका मन कठोर होने लगा।
एक दिन गाँव की पंचायत में कुछ लोगों ने श्यामू के घाटे की बात छेड़ी। गुस्से में रामू ने सबके सामने कहा , मेरे हिस्से की ज़मीन बेचकर मैं मेहनत कर रहा हूँ, और ये बस उड़ा रहा है। इसे तो शर्म भी नहीं आती! भाई हूँ तो क्या हमेशा ढोता रहूँ इसकी जिम्मेदारियाँ?
सबके सामने यह सुनकर श्यामू का चेहरा फक पड़ गया। शब्द जैसे उसके कानों से होते हुए सीधा दिल को चीरते चले गए। यह वही भाई था, जिसने उसके लिए जूतियाँ बाँधी थीं, और आज वही उसका अपमान कर रहा था?
श्यामू उस दिन बिना कुछ कहे चुपचाप लौट गया। उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन उनमें आक्रोश भी था खुद पर, अपनी लापरवाही पर, और उस अपमान पर जो अपने ही ने दिया।
अगले दिन सुबह-सुबह श्यामू अपने छोटे से कमरे में बैठा रहा। वह ना तो कुछ खा पाया, ना सो सका। अंत में, उसने एक निर्णय लिया अब मैं खुद को साबित करूँगा, लेकिन बिना किसी के सहारे के। वह अपनी जमीन का हिस्सा बेचकर शहर चला गया। बिना किसी को कुछ बताए।
शहर में दिन रात मेहनत करते हुए श्यामू ने न जाने कितने ताने झेले, कितनी रातें भूखा काटा। लेकिन उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। पहले ठेला चलाया, फिर एक ढाबे में काम किया, और धीरे-धीरे पैसे जोड़े। वह हर अपमान को अपने अंदर आग की तरह जलाकर ऊर्जा में बदलता गया।
सालों की तपस्या के बाद वह एक सफल व्यापारी बन गया। उसकी खुद की दुकान थी, फिर छोटी सी फैक्ट्री, फिर उसका नाम एक स्थानीय व्यापार मंडल में आने लगा। अब जब कोई उसका नाम लेता, तो लोग सम्मान से सिर झुकाते।
छह साल बाद जब श्यामू गाँव लौटा, तो किसी ने पहचाना तक नहीं वही चेहरा, पर आत्मविश्वास अलग था। रामू, अब उम्र के ढलान पर था। जब उसकी नजरें श्यामू पर पड़ीं, तो समय जैसे थम गया। आँखें भर आईं, होंठ काँपे, पर शब्द नहीं निकल पाए।
श्यामू ने प्रणाम किया, और वही सादगी से कहा, भैया, वो दिन मुझे आज भी याद है। आपके शब्दों ने मुझे झकझोर दिया। मगर अगर वो अपमान न मिला होता, तो शायद मैं आज भी हार मान चुका होता।
रामू की आँखों से आँसू बह निकले पछतावे, प्रेम और पश्चाताप के। दोनों भाई गले मिले जैसे वर्षों से टूटी एक डोर फिर जुड़ गई हो। अब उस रिश्ते में समझ थी, दूरी थी तो केवल समय की, मन की नहीं।
रिश्ते शब्दों से ही बनते हैं, और शब्दों से ही टूटते हैं। अपनों को कहा गया एक कटु वाक्य उस प्रेम की नींव को हिला सकता है जो वर्षों में बनती है। अपमान कोई छोटी बात नहीं – यह आत्मा को तोड़ सकता है, या फिर उसे ऐसा बना सकता है जो इतिहास रच दे। इसलिए, जब भी बोलो – सोच कर बोलो, खासकर अपनों से।
(लेखक : विनोद कुमार झा)