शिवलिंग पर शंख से जल क्यों नहीं चढ़ाया जाता?

 विनोद कुमार झा

शिवलिंग पर जल चढ़ाना भगवान शिव की पूजा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। पर आपने कभी गौर किया है कि मंदिरों में भगवान विष्णु को तो शंख से जल चढ़ाया जाता है, लेकिन शिवलिंग पर कभी भी शंख से जल नहीं चढ़ाया जाता? आखिर क्यों? क्या इसके पीछे कोई विशेष कारण है? भारतीय संस्कृति और पुराणों में हर परंपरा के पीछे गहरी भावना और रहस्य छिपा होता है। आइए जानते हैं इस रोचक परंपरा के पीछे की पौराणिक कथाएं...

अति प्राचीन काल की बात है, जब देवता और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया। इस मंथन से अमृत सहित 14 रत्न निकले। उन्हीं रत्नों में से एक था  शंख, एक सुंदर, दिव्य और अनूठी वस्तु, जिसकी ध्वनि संपूर्ण ब्रह्मांड में गूंज उठती थी।शंख को भगवान विष्णु ने अपनाया। उन्होंने उसे अपने चार हाथों में से एक में स्थायी स्थान दिया। शंख बन गया विष्णु का प्रिय। परंतु समुद्र मंथन से निकली एक और चीज़ थी  हलाहल विष, जो इतना प्रचंड और विनाशकारी था कि सृष्टि को नष्ट कर सकता था। तब सभी देवता भगवान शिव के पास पहुंचे। उन्होंने वह विष स्वयं पान किया और अपने कंठ में रोक लिया, जिससे वे नीलकंठ कहलाए।

पौराणिक कथा के अनुसार स्वर्गलोक में एक बड़ा यज्ञ हो रहा था। सभी देवता उसमें सम्मिलित हुए। यज्ञ में भगवान विष्णु ने जल से भरे शंख से भगवान शिव को अर्घ्य देने का प्रयास किया। जैसे ही शंख से जल शिवलिंग पर गिरा, शिव के नेत्रों में एक क्षण के लिए रोष की चमक दौड़ गई।

उन्होंने शंख को देखा और कहा,"हे शंख! तू समुद्र मंथन की संतान है, परंतु विष की गहराई और असुरों के अहंकार से जुड़ा है। तू विष्णु प्रिय हो सकता है, पर मेरा पूजन तेरी धारा से नहीं हो सकता। मेरा मार्ग तप, त्याग और सरलता का है  वहाँ अहंकार या प्रदर्शन की कोई जगह नहीं। "यह कहते हुए भगवान शिव ने वरदान नहीं, बल्कि मर्यादा का निर्धारण किया, "जो मेरी आराधना करना चाहे, वह शुद्ध जल, बेलपत्र और श्रद्धा से करे। परंतु शंख से जल न चढ़ाया जाए।

एक  अन्य कथा के अनुसार, यह भी वर्णन मिलता है कि शंख, जो कि एक समुद्री जीव से उत्पन्न हुआ था, उसमें अहंकार आ गया था कि वह विष्णु के हाथों में रहता है और उसे सभी देवता पूजते हैं। उसने स्वयं को शिव से श्रेष्ठ मान लिया और उनकी पूजा में स्वयं को प्रयोग करने को उत्सुक हो उठा। शिव, जो हर कण में तत्त्व को पहचानते हैं, उसके भीतर का अहंकार भांप गए और कहा, जहाँ भक्ति में अभिमान आ जाए, वहाँ मेरी उपासना व्यर्थ है। इसलिए शंख से शिवलिंग पर जल अर्पण को वर्जित कर दिया गया।

शिव की पूजा तप, वैराग्य और शुद्धता का प्रतीक है। शंख समुद्र का प्रतीक है जहां काम, क्रोध, लोभ और मोह की लहरें उठती हैं। शिवलिंग पर शुद्ध, शांत, अहंकारविहीन जल चढ़ाना ही वास्तविक भक्ति है। शंख से जल चढ़ाना उन गहराइयों का अर्पण है, जो शिव के मार्ग से भिन्न हैं।यह कहानी केवल पौराणिक रहस्य नहीं, एक गहरी आध्यात्मिक शिक्षा भी है  भक्ति में साधन से ज़्यादा भाव का महत्व है।  शिव को किसी भव्यता की दरकार नहीं, उन्हें चाहिए सिर्फ पवित्र जल, सच्चा मन, और एक बेलपत्र।

शिवलिंग पर शंख से जल न चढ़ाना सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि गहरे पौराणिक और तात्त्विक कारणों से जुड़ी एक धार्मिक भावना है। यह हमें यह भी सिखाती है कि हर पूजा पद्धति की अपनी एक मर्यादा होती है, और ईश्वर की आराधना में शुद्धता, समर्पण और नियमों का विशेष स्थान होता है।

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